ऐ
मेरे देश के कपूतो,
तुम
किसे देख कर जीते हो।
पग पग
भूमि जिसे में माँ बुलाता हूँ,
उस
माँ को अपने कुकर्मो से रोंदते हो ।
ऐ
मेरे देश के कपूतो तुम किसे देख कर जीते हो ।।
हिमालय
से समुद्र पर्यन्त, सहस्त्रो
योजन
विस्तार
है जिसका।
उस
माँ को टुकड़ो में काटते हो ।
उसके
अन्न को जल को बांटते हो ।
अपने
स्वार्थ के लिए उस माँ का गला रेतते हो ।
ऐ
मेरे देश के कपूतो तुम किस के लिए जीतो हो ।।
मेरी
भारत माँ जो सह्त्रो देवपुत्रो को जन्मी है ।
उस
भारती को तुम दानवो की माँ कहलवाते हो ।
ऐ
मेरे देश के कपूतो तुम जैसे कपूतो से तो, मेरी
माँ बाँझ भली ।।
अपने
ही भाइयो का रक्त चूसते हो ।
अपने
ही बहनों का बलात्कार करते हो ।
अपने
ही माँ बाप से भीख मंगवाते हो ।
ऐ
मेरे देश के कपूतो तुम किसके लिए जीते हो ।।
व्यथा
पीड़ा से भरा माँ का मन,
उसके
अश्रु बहा तुम सुख से रहना चाहते हो ।
ऐ
कपूतो सुन लो कान खोल कर ।
एक एक
बूंद अश्रु माँ का,
तुम्हारे
रक्त के कण कण से भी चुकता न होगा ।
कुकर्मो
के हिसाब में तुम्हारे यमराज भी कपता होगा ।।
ऐ
मेरे देश के कपूतो अब तो थोडा ठहरो ।
रुको
अन्दर को अपने झांको,
कुकर्मो
को अपने देखो ।
अगर
अब भी ना रुके, अपने
पापो से ना डरे ।
तो
जाओ जाके की किसी अँधेरी खाई में कूद मरो ।
पर कण
कण में अन्न में जल में बसी मेरी माँ को,
अपने
पापी हाथो से ना छुओ ।
अपने
स्वार्थ के लिए भाई बहनों को मत लूटो ।
मेरी
माँ के अश्रु ना बहने दो।
इसे
सम्मान न सही अपमान तो ना दो ।।
ऐ
मेरे देश के कपूतो,
इस
पवित्र धरती को फिर मानवो की धरती कहलाने दो ।।
ऐ
मेरे देश के कपूतो,
इस
पवित्र धरती को फिर मानवो की धरती कहलाने दो ।।